Ashok Muni अशोक मुनि इस युग की महान विभुति निराहारी तपस्वी साधक थे Great Personality 1
Ashok Muni अशोक मुनि इस युग की महान विभुति निराहारी तपस्वी साधक थे
’’शासन दीपक अशोक मुनिजी की तृतिय पुण्य तिथि पर विशेष’’
( संकलन कर्ता- दिलीप कुमार बक्षी, प्रवक्ता साधुमार्गी जैन संघ, निम्बाहेड़ा)
निम्बाहेड़ा। Ashok Muni अशोक मुनि इस युग की महान विभुति निराहारी तपस्वी साधक थे 15 दिसम्बर कोई साधारण दिवस नही है। इस दिवस को बरसो बरस तक तपस्वी साधक अशोक मुनि की पुण्य तिथि के रूप में सकल जैन समाज द्वारा मनायी जावेगा, महिनो तक निराहार रहने वाले 65 वर्षिय तपस्वी साधक अशोक मुनि मध्यप्रदेश के मन्दसौर शहर में 15 दिसम्बर 2020 में मोक्ष मार्ग की और अग्रसर हो चले थे। इस दिन साधुमार्गी जैन संघ ने एक ऐसे अनमोल रत्न को खो दिया जिसकी पूर्ति होना भविष्य मे सम्भव ही नहीं है।
ऐसे थे हमारे अशोक मुनि
अशोक मुनि हमे अगर कोई कहे कि केवल एक दिन निराहार रहो। निराहार माने…मात्र जल से वो भी सूर्यास्त बाद से अगले दिवस सूर्याेदय तक और फिर हमें कोई यह कहे कि एक दो तीन चार दिन…नही! लगातार तीस-तीस दिनों तक अनवरत निराहार रहना है। हमारी रूह ही कांप जायेगी। लेकिन साधुमार्गी जैन संघ एवं आचार्य श्री रामेश की बगीया के संत अशोक मुनि जो आकर्षण-श्रद्धा व कौतूक का केंद्र थे। वे जो मन में एक बार ठान लेते, उसे येन केन पूरा करने की ओर लग जाते थे।
उन्होने अपने 65 वर्षीय जीवन काल में कई तपस्याए की, बेले तेले अठाई 15-16 आदि की तपस्याओं की तो गिनती ही नही इसी के चलते आचार्य श्री नानेश की जन्म शताब्ती वर्ष 2020 तक 100 मासक्षमण का लक्ष्य तय किया था जिन्होने वास्वव में तो नही परन्तु भावनात्मक रूप से पूर्ण करने का लक्ष्य पेपर पर अंकित कर तय कर ली लिया था।
लेकिन ईश्वर को शायद यह मंजूर नही था। कदाचित इसीलिए मंदसौर में 98 वा मास खमण पूर्ण करने के बाद आज ही के दिन वह मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसित हो चले। उग्रविहार करते हुऐ तपस्या ध्यान साधना आदी नियमित रूप से करते हुऐ मासक्षमण जेसी तपस्या करना कठिन ही नही असम्भव है। लेकिन अशोक मुनि ने यह कठिन व असम्भव कार्य भी सम्भव करके दिखाया जो आज के भौतिक युग में एक चमत्कार से कम नहीं था।
सक्षिप्त परिचय
मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के जावरा में 11 अक्टुबर 1956 आसोद शुक्ला सप्तमी संवत 2014 को माता सोहन बाई नवलखा की कुक्षी से जन्म लेने वाले बालक के मन में आरम्भ से ही आध्यात्मक में रूचि रही। जानकारी अनुसार पोने दो साल की बाल्यवस्था में श्री गणेशाचार्य के शुभ आशीर्वाद से आपके जीवन में संयम के बीज अंकुरित होने लगे थे। इसकी जानकारी न तो सांसारिक पिता सोभाग्य मल नवलखा को थी और ना ही माता को, कुल तीन भाईयों व एक बहिन में सबसे छोटे भाई के तौर पर बड़े ही लाड़ प्यार दुलार से पले बढे।
कक्षा 10 वी तक ही अध्ययन किया, फिर मात्र 16 वर्ष की आयु में ही साधुमार्गी संघ के श्री इन्द्रचंद जी म0सा0 की सेवा निमित्त घर छोड कर चले गये। उधर परिजन पुनः सांसारिक जीवन में ही रखने हेतु प्रयत्नशील रहे। लेकिन वह सफल नही हुए। अन्ततोगत्वा 21 वर्ष की अल्पायु में ही आसोज शुक्ला द्वितिया संवत 2034, तद्नुसार 14 अक्टुबर, 1977 में मारवाड के भीनासर में समता विभुति आचार्य श्री नानालाल जी म0सा0 के सानिध्य में भागवती दीक्षा अंगीकार कर ली।
कोरोनो महामारी में भी संकल्प से विमुख नही हुए
जानकारी अनुसार वर्ष 2016 चातुमार्स के दौरान ही आपने मन ही मन में ठान लिया की उनको दीक्षा प्रदाता आचार्य श्री नानेश की 100 वी जन्म जयन्ति तक 100 मास खमण पूरा कर दिव्यात्मा को अभिनव श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे ओर उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 25 दिसम्बर 2016 को निम्बाहेड़ा में ही 66 वा मास खमण पूरा किया।
बाद में तपस्यारत रहते हुऐ देशनोक, देवगढ, देवरीया उदयपुर, भीण्डर जावद, बडीसादडी, छोटीसादडी आदि स्थानो पर विचरण करते हुए मासक्षमण की दोड भी चालू रही, और तो और कोराना जैसी महामारी भी उनके संकल्प को डिगा नही पाई उस अवधी में भी उनकी तपस्या का दौर लगातार जारी रहा।
आपको बता दे कि दिसम्बर 2016 में 66 वा और दिसम्बर 2020 में 98 वा मासक्षमण पूर्ण किये वहीं 100 का उनका लक्ष्य था, क्या गजब का जीवट रहा उनका…? जहाँ 48 माह की अवधि 32 वा मास क्षमण पूर्ण किया व जानकारी अनुसार दो मास क्षमण के आरम्भ और पूर्ण होने की तारीख का उल्लेख भी उन्होने कर रखा था, इस प्रकार देखा जाए तो 44 वर्ष की दिक्षापर्याय में 98 मास खमण पूर्ण कर अपने आप में इतिहास रच दिया।
साधुचर्या का निर्वहन करते हुए करते विहार
यदि हम इन मुनि के अपूर्व जीवट पर जरा नजर डाले…, तो यह जानकर हम चमत्कृत रह जाएंगे कि निराहार रहने के दौरान ही मुनि अनवरत साधुचर्या का निर्वहन करते हुए पदाति विहार करते रहे। आपको बता दे नियमानुसार जैन मुनि के चातुर्मास के अतिरिक्त एक ही स्थान पर 29 दिनो से अधिक दिनों तक ठहरने का कल्प नही रहता हे। भूखा रहकर चलते रहना चलते रहना और कभी कभी 40 से 50 किलोमिटर तक का लम्बा विहार भी एक दिन मे कर लेना यह किसी बिरले व्यक्तित्व का ही जीवट हो सकता है।
संकल्प के साथ पारणे की भी है अजीब कहानी
मासखमण के बाद सन्त जो पारणा करते हे उसकी भी अजीब कहानी है। श्रावक अपने लिये भोज्य पदार्थाे मे से संत के भीक्षापात्र में अपर्ण करना चाहते है। उसे भी मर्यादा अनुरूप जानते है तो ही ग्रहण कर पारणा करते है। कई बार तो पारणे के समय में ऐसे कठिन प्रसंग भी उपस्थित हुऐ की जिनकी पूर्ति होना यकायक सम्भव नही हो पाते ऐसे ही कुछ प्रसंग मेरे संज्ञान में आये जिनका उल्लेख आज के इस प्रसंग पर करना उचित प्रतित हो रहा है।
एक बार बारावरदा गांव में विचरण के दोरान ही संत के मास खमण का पारणा था। उन्होने पारणे को लेकर संकल्प लिया कि ‘‘स्थानक में कोई लाल मुंह का बन्दर हाथ में मक्का की रोटी आएगा और मुझे देने का प्रयास करेगा तो ही पारणा करूंगा।’देखिएगा… ऐसा कठिन संकल्प भी पूर्ण हुआ। इस चमत्कार को कई श्रावको ने अपनी आखों से देखा। वहीं मध्य प्रदेष के गांव सैलाना में उन्होने संकल्प लीया कि ‘‘सफैद घोडा जिसके सिर पर लाल तिलक हो और उस पर बैठा घुडासवार मेरा अपमान करके यह षब्द कहे की साधु भुखा क्यो मरता है खाले’’ तो ही पारणा करूंगा।
ऐसे ही बडीसादडी में विचरण के दौरान संकल्प लिया कि ‘‘कोई सुहागन महिला सफेद साडी पहन कर कोई पांच सफेद वस्तु बहरावे’’ तो पारणा करूं, वही ‘‘उदयपुर में 251 प्रतिपूर्ण पौशध पुरूशो द्वारा किये जाऐ ,1008 व्यक्ति सामायिक परिवेश में एक साथ सामायिक करे’’ तो पारणा करूं । वही जावरा में ‘‘ कुल 108 श्रावक श्राविकाओं द्वारा प्रतिक्रमण कंठस्थ याद कर लेने पर’’ पारणा करने का संकल्प लीया ऐसे ही कई कठिनतम संकल्प भी उन्होने लिये और यह सभी संकल्प उनके मास क्षमण पूर्ण होने पर ही उनके द्वारा बताऐ जाते थे।
मौन साधना ही ‘‘सम्बल’’ था उनकी तप साधना का
मौन रहना भी एक कठिन साधना है, मौन साधना भी मुनि की तपस्या का ‘‘सम्बल’’ बनी। मुनि मंगलवार व शुक्रवार दो दिन पूर्णतः मौन धारण किए रहते थे। बाकी के पांच दिन वे प्रवर्चन-धर्म व चर्चा में ही बोलते थे। यहां तक की तपस्या के दोरान भी घण्टो घण्टो तक प्रवचन व ज्ञान चर्चा करते करते। यह सब देख बडे से बडे चिकित्सक भी अचंभित रह जाते थे। वे यह देख कर भी आश्चर्य करते कि ऐसी शारीरिक विकट परिस्थितियों में भी मुनि पैदल विहार कैसे करते थेे…, इनके सामने यहां विज्ञान भी बेबस हो जाती है। यह चमत्कार तो साधू-संतो के बस की ही बात होते है, आज उनकी तिसरी पुण्य तिथि पर उन्हे शत-शत नमन, अभिनन्दन।
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Ashok Muni was a great personality of this era, an ascetic devotee.
“Special on the third death anniversary of Shasan Deepak Ashok Muni”
(Compiled by- Dilip Kumar Bakshi, Spokesperson Sadhumargi Jain Sangh, Nimbahera
Nimbahera. Ashok Muni was a great personality of this era, a fasting ascetic, 15th December is not an ordinary day. This day will be celebrated by the entire Jain community as the death anniversary of the ascetic ascetic Ashok Muni for many years. The 65 year old ascetic Ashok Muni, who remained fasting for months, moved towards the path of salvation on 15 December 2020 in Mandsaur city of Madhya Pradesh. Were. On this day the Sadhumargi Jain Sangh lost such a priceless gem which is not possible to be replenished in the future.
This was how our sage Ashoka was.
If someone tells us to remain fasting for just one day. Means fasting…only with water and that too from sunset till sunrise the next day and then someone tells us that for one, two, three or four days…no! One has to remain fasting continuously for thirty days. Our very soul will tremble. But Saint Ashok Muni of Sadhumargi Jain Sangh and Acharya Shri Ramesh’s garden was the center of attraction, reverence and curiosity. Once he had decided in his mind, he would set out to accomplish it with all his might.
He performed many penances during his 65 years of life, not counting the penances of Bele Teele Athai 15-16 etc., due to which he had set a target of 100 months of remission by 2020, the birth centenary year of Acharya Shri Nanesh, who though not in reality but The goal of being emotionally fulfilled was written down on paper and decided.
But perhaps God did not approve of this. Perhaps that is why after completing the 98th month of Khaman in Mandsaur, on this very day he started moving towards the path of salvation. It is not only difficult but impossible to do penance like Maasakshman while doing penance like Ugravihar, meditating etc. regularly. But Ashoka Muni made this difficult and impossible task possible, which was no less than a miracle in today’s material age.
brief introduction
The boy, who was born to mother Sohan Bai Navlakha’s Kukshi on 11 October 1956 in Asod Shukla Saptami Samvat 2014 in Javra in Ratlam district of Madhya Pradesh, had interest in spirituality from the very beginning. According to the information, at the age of two years, the seeds of restraint started sprouting in your life due to the auspicious blessings of Shri Ganeshcharya. Neither his worldly father Sobhagya Mal Navlakha nor his mother knew about this, he grew up with great pampering and affection as the youngest brother among three brothers and one sister.
Studied only till class 10th, then at the age of only 16, Shri Indrachand ji of Sadhumargi Sangh left home to serve M.S. On the other hand, the family members kept trying to keep him back in worldly life. But he did not succeed. Ultimately, at the young age of 21, Asoj Shukla accepted Bhagwati Diksha under the guidance of Samta Vibhuti Acharya Shri Nanalal Ji M.S. in Dwitiya Samvat 2034, i.e. on 14 October, 1977 in Bhinasar, Marwar.
We did not lose our resolve even during the Corona epidemic.
According to the information, during the Chatumars of the year 2016, you had decided in your mind that by completing 100 months of Khaman till the 100th birth anniversary of the initiation provider Acharya Shri Nanesh, you will pay a new tribute to the divine soul and to achieve the same goal, on 25 December 2016 Completed the 66th month of Khaman in Nimbahera itself.
Later, while doing penance, he continued his penance by visiting places like Deshnok, Devgarh, Deoria, Udaipur, Bhinder Javad, Badisadadi, Chhotisadadi etc. And even the pandemic like Corona could not deter his resolve even during that period. The phase continued.
Let us tell you that he completed the 66th month in December 2016 and the 98th month in December 2020, while his target was 100. What amazing courage he had…? Where he completed the 32nd month of Kshaman of the period of 48 months and as per the information, he had also mentioned the date of beginning and completion of two months of Kshaman, if seen in this way, then in the 44 years of Dikshaparaya, he completed 98 months of Kshaman in himself. Created history.
walking while performing the duties of a saint
If we take a look at the amazing life of this sage, then we will be amazed to know that even while fasting, the sage continued to perform the sacred rituals continuously. Let us tell you that as per the rules, apart from Chaturmas, a Jain monk is not allowed to stay at one place for more than 29 days. To keep walking despite being hungry, to keep walking and sometimes even to undertake a long journey of 40 to 50 kilometers in a day, can be the courage of only a rare personality.
Along with Sankalp, Parne also has a strange story.
There is also a strange story about the parana that the saint performs after massachmana. The devotees want to offer food items for themselves in the alms bowl of the saint. Only if we know that it is in accordance with dignity, we can accept it and perform Parana. Many a times, during the time of passing away, such difficult situations arose which were not possible to be resolved suddenly. Some such incidents came to my notice which I feel is appropriate to be mentioned in today’s context.
Once, while wandering in Baravarada village, the saint had the month of Khaman. He took a pledge regarding Parna that, “If any red faced monkey in the place comes with a maize bread in his hand and tries to give it to me, I will do Parna only.” You will see… such a difficult resolution was also fulfilled. Many devotees saw this miracle with their own eyes. At the same time, in the village of Sailana in Madhya Pradesh, he took a pledge that he would perform Parana only if “a white horse with a red tilak on its head and the rider sitting on it insults me and says the words ‘Why does a saint die of hunger?'”
Similarly, while roaming in Badisadadi, I took a resolution that “If any married woman wears a white saree and throws five white objects”, the same should be done in Udaipur by 251 dedicated men, 1008 people together in a contemporary environment. If you share it then I will do it. In the same Javra, he took a resolution to perform Parana “after a total of 108 Shravaka Shravikas memorize Pratikraman”. Similarly, he also took many difficult resolutions and all these resolutions were told by him only after the completion of his month of Kshaman.
The practice of silence was the “support” for his penance.
Remaining silent is also a difficult practice, the practice of silence also became the “support” for the sage’s penance. The sage used to observe complete silence for two days, Tuesday and Friday. For the remaining five days he used to speak only in preaching-religion and discussion. Even during penance, he would give sermons and discuss knowledge for hours.
Even the greatest doctors were astonished to see all this. They were also surprised to see how the sages used to walk on foot even in such physically difficult conditions…, here even science becomes helpless in front of them. These miracles are within the power of sages and saints, today on their third death anniversary, we pay our respects and congratulations to them!!
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