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भक्ति की पहचान समर्पण, त्याग और सेवा से होती है – मुनिश्री सुप्रभ सागर

भक्ति की पहचान समर्पण, त्याग और सेवा से होती है – मुनिश्री सुप्रभ सागर

सिंगोली। भक्त भगवान की भक्ति करते हुए अन्त में अपनी कमियों के लिए क्षमायाचना करता है। क्षमा याचना करते हुए अपनी अल्पज्ञता के कारण हुई, जाने-अजाने में हुई मंत्रों की हीनता,क्रिया की हीनता से हुई कमियों के लिए क्षमा याचना करता है। आचार्य कहते हैं, कि भक्ति की पहचान समर्पण, त्याग और सेवा से होती है।

यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनि श्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 17 नवंबर शुक्रवार को प्रातःकाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही। मुनि श्री ने कहा कि स्वार्थ में भक्ति नहीं होती है। समर्पण करने वाला अपनी गलतियों और कमियों के लिए क्षमा याचना करने में देर नहीं लगाता हैं। वह तत्काल क्षमा मांगकर स्वयं को शुद्ध कर लेता है।

समर्पण करने वाले को बिना मांगे सब कुछ मिलता है और उम्मीद से कहीं अधिक मिलता है। पूर्ण समर्पित भक्त के लिए तो देवता भी सेवा में खड़े रहते हैं। देव भी उनकी सहायता करते हैं। भक्ति में अपना सर्वस्व त्याग कर देने वाले भक्त को भगवान अपने समान बनने का मार्ग प्रशस्त कर देते है। भक्ति जीवन में आनन्द प्राप्ति का उपाय है। भक्ति से उत्पन्न आनन्द के समक्ष संसार सुख नीरस और इन्द्रिय सुख भोग व्यर्थ लगने लगते हैं। संसार समुद्र से पार जाने के लिए भक्ति एक मजबूत नौका के समान है।

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