प्रवर्तक श्री विजयमुनिजी म. सा.- धर्म ग्रंथ सुनते तो हजारों हैं लेकिन आत्मसात करने वाले कम Amazing News No.1
प्रवर्तक श्री विजयमुनिजी म. सा.- धर्म ग्रंथ सुनते तो हजारों हैं लेकिन आत्मसात करने वाले कम
नीमच। प्रवर्तक श्री विजयमुनिजी म. सा.- धर्म ग्रंथ सुनते तो हजारों हैं लेकिन आत्मसात करने वाले कम। आज के दौर में होंठ का उपयोग ज्यादा होता है और कान का कम यही बात हर घर में विवाद का कारण बन रही है। गुरु की बात शिष्य, पति की बात पत्नी और सास की बात बहु सुनने को तैयार नहीं है।
सुनाने वाले तो हजारों है लेकिन स्वीकार करने वाले बहुत कम है जो सुन सकता है वह अपने आप को संभाल सकता है। यह बात जैन दिवाकरीय श्रमण संघीय, पूज्य प्रवर्तक, कविरत्न श्री विजयमुनिजी म. सा. ने कही। वे श्री वर्धमान जैन स्थानकवासी श्रावक संघ के तत्वावधान में वीर पार्क रोड स्थित श्री वर्धमान जैन स्थानक जैन भवन पर मुनि जी महाराज साहब की 100वीं जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित धर्मसभा में बोल रहे थे।
प्रवर्तक श्री विजयमुनिजी म. सा.- जैन धर्म के आगम और ग्रंथ प्राचीन संस्कृति है
उन्होंने कहा कि भौतिक जीवन में जिस प्रकार आहार जरूरी है ठीक उसी तरह धर्म आध्यात्मिक जीवन में प्रवचन जरूरी है। प्रवर्तक श्री ने कहा कि संबंध कभी तेल और पानी जैसे नहीं दूध और पानी जैसे भूमिका के होना चाहिए। परमात्मा से हमारा संबंध आत्मीयता का होना चाहिए। परमात्मा के करीब जाकर उनके वचनों को सुनकर उनके प्रिय बन सकेंगे तभी परमात्मा सिर्फ अच्छे लगने से नहीं, अपने लगने से काम बनेगा। परमात्मा के लिए हमारे मन में नियर हियर, डियर, फीयर और टियर की भूमिका होना चाहिए।
जैन धर्म के आगम और ग्रंथ प्राचीन संस्कृति है। इनके अध्ययन के बिना इनको समझा नहीं जा सकता है। प्राणी मात्र के हितों की रक्षा के लिए जैन धर्म की संस्कृति तथा संस्कार आर्य सभ्यता को समझने तथा आत्मसात करने के लिए जैन आगमों का पठन चिंतन मनन करना चाहिए क्योंकि जैन आगम में प्राणी मात्र के हित की चिंता तथा उनके अभयोदय हेतु जैन आगम में बहुत कुछ मार्गदर्शन का ज्ञान दिया हुआ है।
सामान्य लोग प्राकृत और संस्कृत भाषा को पढ़कर समझ नहीं पाते हैं इसलिए हिंदी भाषा में जैनागम का सरल संपादित किया गया है। भावी पीढ़ी धर्म आगम के उपदेश के अभिप्रायंयों को पढ़कर समझ कर समझ नहीं पाती है उनके लिए धर्म गुरुओं ने अपने प्रवचनों के माध्यम से आगम संवत जैन संस्कार तथा संस्कृति का प्रचार प्रसार किया है।
जो कि वर्तमान में धर्म साहित्य के रूप में सभी भाषाओं में उपलब्ध है यदि उन गुरुओं के प्रवचनों को भी पढ़ लिया जाए तो जैन संस्कृति संस्कार का स्थायित्व मनुष्य में हो सकता है प्रवचनों के माध्यम से धर्म गुरुओं ने मानवीय संवेदना जीव दया भाव कर अभाव ग्रस्त रोगियों की सेवा चिकित्सा माता-पिता की आजीवन सेवा के गुण मनुष्यों में आ सकते हैं क्योंकि वर्तमान युग को देखते हैं तो स्थान स्थान पर हिंसा अत्याचार दुष्कर्म कई घृणित व्यवहार मानवीय जीवन में उतर गए है।
जिसके कारण मनुष्य पशु से भी बेकार व्यवहार करने लग गया है अतः युवा वर्ग से आहव्वान है कि जैन धर्म आगम ग्रंथ को जिस तरह से भी अध्ययन कर सकते हैं करना चाहिए धर्म गुरुओं के सिद्धांत परख प्रवचन को अवश्य ही प्रतिदिन पठन चिंतन कर जीवन में आत्मसात करना चाहिए साथ ही कुछ आचरण में उतारने का प्रयास करना चाहिए तभी आत्मा का कल्याण होगा। ताकि जीवन का अभ्युदय हो सके और शांति से जीवन जी सके।जिससे परिवार समाज तथा जनता के बीच में सौहार्द का वातावरण उत्पन्न हो सके। एक दूसरे एक दूसरे के सहयोगी बन सके यही मान्यता की मिसाल होती है।
जैन धर्म के सिद्धांत हमें दूसरों की सेवा के संस्कार सीखने की प्रेरणा देते हैं। साध्वी डॉक्टर विजय सुमन श्री जी महाराज साहब ने कहा कि युवा वर्ग को धर्म से जोड़ने के लिए बचपन से ही धार्मिक पाठशाला के संस्कारों से जोड़ना होगा। इस अवसर पर इसमें सभी समाज जनों ने उत्साह के साथ भाग लिया।
इस अवसर पर विभिन्न धार्मिक तपस्या पूर्ण होने पर सभी ने सामूहिक अनुमोदना की। धर्म सभा में उपप्रवर्तक श्री चन्द्रेशमुनिजी म. सा, अभिजीतमुनिजी म. सा., अरिहंतमुनिजी म. सा., ठाणा 4 व अरिहंत आराधिका तपस्विनी श्री विजया श्रीजी म. सा. आदि ठाणा का सानिध्य मिला। चातुर्मासिक मंगल धर्मसभा में सैकड़ों समाज जनों ने बड़ी संख्या में उत्साह के साथ भाग लिया और संत दर्शन कर आशीर्वाद ग्रहण किया।
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